बुधवार, 28 नवंबर 2007

ओम शान्ति ओम

ओम शान्ति ओम यह फ़िल्म दिवाली के दिन रिलीज़ हुई थी। माना जात है कि कई सालों में यह सबसे बडी फ़िल्म है। भारत में अपने पहले ही हफ़्ते में उन्होंने 20 मिल्ल्यन डॉलर बना लिये। आज यह फ़िल्म यु-के के भी टॉप दस फ़िल्मों के लिस्ट में है जो काफ़ी गर्व की बात है।इस फ़िल्म के उत्पादक स्वयं शाहरुख खान ही है जो कि फ़िल्म के अभीनेता भी है। इस फ़िल्म के निर्देशक उनकी दोस्त फ़राह खान है और यह फ़िल्म उनकी दुसरी ही फ़िल्म है और उन्होंने कमाल का काम किय है। इस फ़िल्म में दिपिका पदुकोण पहली बार अभिनेत्री बनी है और उन्होंने बहुत अच्छी ऍक्टिन्ग की है।
इस फ़िल्म का पहला भाग 1970’स में लिया है जब ओम(शाहरुख खान) एक जुन्यर आर्टिस्ट थे और शान्ति(दिपिका) एक बडी अभिनेत्री थी और ओम उससे बहुत प्यार करता था। परन्तु उन दोनों की मौत हो गयी और फ़िर दोनों का पुनर्जन्म हुआ। इस बार ओम बहुत बडा अभिनय बन गया और जब वह तीस साल क हुआ तब उसे शान्ति वापस मिलती है। इस बार शान्ति एक जुन्यर आर्टिस्ट है। परन्तु यह मूवी जरूर देखनी चाहिए और इस फ़िल्म का एक गाना है जिसमें 31 स्टार्स है और बहुत ही हिट हुआ।
-ॠषित दवे

डॅन ब्राऊन

डॅन ब्राऊन मेरे प्रिय लेखकों में से एक है। उनकी आज तक चार किताबें बाहर पडी हैं और मुझे चारों बहुत पसन्द आयी। उनकी पुस्तकों की एक बात यह है कि वह बहुत ही सोच विचार के बाद लिख्ते है। उनका जन्म जून 22 1964 में हुआ था। 2003 की उनकी ‘द डा विन्ची कोड’ किताब विश्व प्रसिद्ध बनी और दो साल पहले उसपर एक मूवी भी बनायी गयी। परन्तु मेरे खयाल से यह मूवी किताब जितनी अच्छी नही थी।
उनका जन्म एक्सेटेर, न्यू हॅम्प्शायर में हुआ था और उनके पिता वहा के प्रसिद्ध विद्यालय में गणित सिखाते थे।उनकी माँ एक म्युसिशन थी। वह ऍम्हर्स्ट महाविद्यालय में दाखिल हुए। उनकी शादी 1997 में ब्लाय्थ न्यूलन के साथ हुई जो कि उनसे 12 साल बडी थी और उन्हे ऊपर लाने की कोशिश कर रही थी। वह ब्राऊन को एक गायक बनाने में मदत कर रही थी। 1993 में ब्राऊन ने अपनी पहली म्युझिक सीडी बाहर निकाली। इसके बाद वह अपने जन्म गाव लौट आये और उन्ही कि विद्यालय फ़िलिप्स एक्सेटेर में वे अन्ग्रेजी और स्पॅनिश सिखाने लगे।
1996 में वे शिक्षक के पद से उतर गये और अपना सारा समय किताबें लिखने में डाल दिया। 1998 में उनकी पहली किताब डिजिटल फ़ोर्ट्रेस बाहर आयी।इसके बाद उन्की अगले 6 सालों में ऍन्जल्स ऍन्ड डीमन्स, दिसेप्शन पोईन्ट और दा विन्ची कोड बाहर आयी और यह सारि किताबें न्यु यॉर्क टाईम्स बेस्ट सेलर्स के लिस्ट में शामिल हुई।
-ॠषित दवे

मंगलवार, 27 नवंबर 2007

भारत के महान ग्रंथ, भाग 2: महाभारत

महाभारत भारत का एक ऐतिहासिक ग्रंथ है। महाभारत की पावन कथा महर्षि वेद व्यास ने लिखी थी। जीवन में विरोध भाव, द्वेष, क्रोध और ईर्ष्या से सफलता कभी प्राप्त नहीं हो सकती। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण महाभारत है।

सम्राट भरत, राजा दुष्यंत और ऋषि-कन्या शकुन्तला के पुत्र थे। भरत बड़े पराक्रमी, वीर, उदार और विद्वान थे उनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। उन्हें अपने पुत्रों में से कोई ऐसा योग्य पुत्र दिखाई नहीं दिया, जिसे अपना उत्तराधिकारी बना सकें। अतः उन्होने ऋषि भरद्वाज के ज्येष्ठ पुत्र को अपने बाद राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया, और इसी के साथ भारत में प्रजातंत्र का प्रारंभ हुआ।

कई वंशज बीतने के पश्चात भरत के वंश के ही राजा शांतनु हुए जो बहुत गुणवान, वीर और प्रजापालाक थे उनके पुत्र देवरथ थे। उन्होंने अपने पिता की इच्छा पूर्ति के लिए अविवाहित रहने की भीषण प्रतिज्ञा की। इस कारण उनका नाम भीष्म पड़ गया। आगे चलकर वे भीष्म पितामह के नाम से भी जाने गये। महाराज शांतानु और सत्यवति से दो पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए चित्रांगद बहुत जल्दी युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हो गये। विचित्रवीर्य की दो रानियाँ थीं। अंबिका और अंबालिका। कुछ समय पश्चयात विचित्रवीर्य निहसांतान ही मृत्यु को प्राप्त हो गये।

रानी सात्यवती के बुलाने पर महर्षि वेद व्यास आए। वे बहुत ही कुरुप थे। वेद व्यास अपने योग-बल से कुछ भी कर सकते थे। इसलिए जब अंबिका के कक्ष में वे गये, तो उनका कुरुप चेहरा देखकर उनकी आखें बंद हो गयी। इस कारण उनका पुत्र धृतराष्ट्र, नेत्रहीन पैदा हुआ। उसके बाद वेद व्यास अंबालिका के कक्ष में गये, तो अंबालिका का चेहरा भय से पीला पड़ गया। उनके पुत्र बीमार रहते थे और उनका नाम पांड़ू पड़ गया। तीसरा पुत्र दासी से हुआ जो बहुत ही बुद्धिमान और विवेकी था, उसका नाम विदुर रखा गया। धृतराष्ट्र से सौ पुत्र और एक कन्या का जन्म हुई और पांड़ू से पाँच पुत्र हुए। धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव कहला और पांड़ू के पाँचो पुत्र पांडव कहलाए।

पांडवों का सत्य पर विश्वास था। कौरवों अहंकारी और दुराचारी थे। वे छल कपट में विश्वास करते थे। पांडवों और कौरवों में राज्य के लिये युद्ध हुआ, परंतु अंत में जीत पांडवों की हुई और कौरवों की विशाल सेना को हार का मुँह देखना परा। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि असत्य पर सत्य की विज्य हुई। महाभारत कौरव-पांडव युद्ध का प्रतिफल था। महाभारत हमें धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा देता है।

भारत के महान ग्रंथ, भाग 1: रामायण

रामायण हमारे प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथों में से एक है। पृथ्वी पर जब-जब पाप बढ़ा और धर्म की हानि हुई, तब-तब भगवान ने पृथ्वी पर मानव रूप में मानव के कल्याण करने के लिए अवतार लिया और लोगों को मर्यादा में रहने तथा धर्म का पालन करने की शिक्षा दी।

रामायण की रचना आदि कवि वालमिकी ने संस्कृत भाषा में की थी। रामायण में श्री राम का चरित्र-चित्रण
किया गया है। श्री राम अयोध्या के महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र थे, वे साहसी, वीर, आज्ञाकारी, गुरू, पितृ और मातृ भक्त थे। इसीलिए भगवान श्री राम को मर्यादा पुरुशोत्तम कहा जाता है।

श्री राम बहुत ही पराक्रमी थे। विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करते समय उन्होंने एक तीर से अनेक राक्षसों का वध कर दिया था। वह धनुष-बाण चलाने की कला में अद्वितीय थे। इसीलिए आज भी किसी वस्तु की अमोघता बताने के लिए राम-बाण शब्द का प्रयोग कीया जाता है।

श्री राम ने 14 वर्ष का वनवास स्वीकार करके पिता के वचन की रक्षा और माता की आज्ञा का पालन किया। रामायण पढ़ते समय ऐसा कहीं भी दिखाई नहीदेता, जहाँ वे मर्यादा-हीन हुए हों। माता, पिता एवं गुरुजन के प्रति विनम्रता तथा स्त्री जाति के प्रति सम्मान, राम के मर्यादा पालन को प्रदर्शित करता है।

श्री राम ने सूग्रीव और विभीषण के साथ मित्रता बहुत ही सुंदर ढंग से निभायी। भाइयों के प्रति स्नेह किस प्रकार
करना चाहिए, रामायण इसका सुंदर उदाहरण है।

राक्षस-राज रावण के अहंकार को नष्ट करके युद्ध में उसका संहार करके श्री राम ने विभीषण को लंका का राज्य सौंप दिया। राम के चरित्र में कहीं भी कोई दोष देखने को नही मिलता है। वे योग्य पुत्र, स्नेह करने वाले भाई, आदर्श पति ,अद्वितीय धनुर्धर और मर्यादा पालक थे। रामायण में श्री राम के बाल काल से लेकर 14 वर्ष का वनवास, लंका पर विजय तथा अयोध्या आने और राज-काज संभालने तक का विवरण है। उनके शासन काल में प्रजा सुख-शांति से रहती थी, आज भी हम लोग राम राज्य जैसे शासन की कल्पना करते हैं।

एड्स :एक आधुनिक दानव

पिछले कई वर्षों से एड्स एक भयावह शब्द बनकर पूरी दुनिया के लोगों को भयभीत कर रहा है। तो यह उचित ही है कि इसे आधुनिक दानव माना जाये। दुनिया का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जो इसके दानवी प्रहार से बचा हुआ हो। यह दानव कभी अज्ञात रूप से आक्रमण करता है तो कभी कुछ लोग अपने कर्मों से इसे दावत देते हैं। इसके प्रचार व प्रसार में अज्ञानता और अशिक्षा ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वैसे तो इस रोग का जन्म पश्चिम के समृद्ध देशों में हुआ है परन्तु इस वैज्ञानिक युग में जब संसार छोटा होता प्रतीत होता है , कुछ भी सीमित नहीं है। अतः सावधान न रहने पर कोई भी इसकी चपेट में आ सकता है।

एड्स के कीटाणु जब शरीर में प्रवेश करते हैं तो तुरन्त कुछ पता नहीं चलता है क्योंकि यह शरीर पर बहुत धीरे-धीरे असर करता है । वास्तव में यह कोई रोग नहीं है बल्कि इससे शरीर की रोग से लड़ने की क्षमता धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है । ऐसी स्थिति में साधारण से साधारण रोग भी बहुत घातक होता है।

एड्स का अभी तो कोई इलाज सामने नहीं आया है। हालाकि इसका प्रभाव कम करने हेतु कुछ दवाएँ उपलब्ध हैं परन्तु ऐसी कोई दवा विकसित नहीं हुई है जो व्यक्ति को रोग से मुक्त कर सके। ऐसी स्थिति में इससे बचने का एक मात्र उपाय सावधानी है। यदि समाज का हर व्यक्ति सवधान रहे तो एड्स का फैलाव पूरी तरह रुक सकता है तथा हम इस आधुनिक दानव को पछाड़ सकते हैं ।

सिनेमा और समाज

सिनेमा बीसवीं सदी में मानव जाति को मिले कुछ बेशकीमती वैज्ञानिक उपहारों में से एक है। इसने विश्व के मनोरंजन के परिदृश्य में एक क्रांति ला दी है क्योंकि इससें पहले नाटक,नौटंकी व त्योहारों के अवसर पर लगने वाले मेले ही लोगों के मनोरंजन का प्रमुख साधन थे। क्योंकि ऐसे समागम कभी-कभी ही आयोजित हुआ करते थे , अतः मनोरंजन के मामले में लोग सदा ही अतृप्त रहा करते थे । सिनेमा विश्व के लोगों के लिये मनोरंजन का एक उत्तम साधन बनकर सामने आया है क्योंकि इसे किसी भी वर्ग ,जाति या धर्म के लोग एक साथ देख सकते हैं तथा इसका आनन्द पूरा परिवार एक साथ बैठ कर उठा सकता है।यह मनोरंजन का एक सुलभ साधन बन गया है ।

भारत में अंगरेज़ों के शासन काल से ही फिलमें बनने का सिलसिला आरम्भ हुआ जिसका सफर मूक, संवाद के साथ मगर श्वेत-श्याम और फिर रंगीन फिलमों के दौर से गुज़रा और आज भी भारतीय फिल्में पूरी दुनिया में बड़े चाव से देखी जाती हैं। लेकिन पुरानी फिल्मों और आज के दौर की फिल्मों में एक बड़ा अंतर है कि जहाँ पुरानी फिल्में समाज के सभी वर्गों को ध्यान में रखकर बनाई जाती थीं वहीं आज का सिनेमा पारिवारिक एवं नैतिक हितों को कई तरह से अनदेखी करता है ।

जहाँ तक सिनेमा और समाज के आपसी सम्बंधों की बात है तो अब तक के अनुभवों से यह सिद्ध हो गया है कि दोनों अपनी-अपनी सीमा तक एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । हर दशक का सिनेमा तेज़ी से परिवर्तित होते समाज को दर्शाता है । सिनेमा और समाज एक दूसरे के पूरक भी हैं । व्यक्ति थोड़ी देर के लिये ही सही, अपने दुखपूर्ण संसार से बाहर आ जाता है।जिस प्रकार साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है उसी प्रकार सिनेमा भी समाज का दर्पण बनता दिखाई दे रहा है ।

रविवार, 25 नवंबर 2007

मेरा विन्टर का ब्रेक

अब मेरा दिसम्बर में मेरा विन्टर ब्रेक आने वाला है। मैं दो हफ्ते के लिए जाऊंगी। बहुत मजा आयेगा। मैं आइस्कतिंग जाऊंगी, अपने दोस्तो के साथ मिलूंगी। इस बार जब जाऊंगी हो सकता है कि मैं डी ए टी एक्साम लूंगी। यह एक्साम देन्तिस्ट्री के लिए है। मैं मेडिकल मी तो जाऊंगी लेकिन यह है सिर्फ अगर मेडिकल एक्साम नही पास कर पाई। यह एक्साम उतना क्ठिन नहीं है जितना मेडिकल वाला है। लेकिन मेरे इतना सारे दोस्त है कि मुझे कभी कभी पढ़ने में मुश्किल हो जाती है। जब पढ़ने का समयः आता है, तब सब दोस्तों को छोर देना पढ़ ता है। मई भूल जाती हूँ कि मेरा गोल क्या है। मुझे बहुत फिक्र है अपने फुचर के बारे में।

बुरे लोग

कोइ लोग के भावना में रह है कि सिर्फ उनके लोग अच्छे है जैसा कोइ देसी लोग सोच ते है कि सिर्फ दुसरे देसी ही अच्छे है और कोइ और अच्छा हो ही नही सकता है क्या यह लोग बुरे है या इन लोगो को पता नही है कि सब लोग लोग ही होते है कोई एक से ऊपर नही है और कोई किसी से नीचे नही है यह भावना कहाँ से आती है? मैंने अपनी अच्छी खासी ज़िंदगी अमरीका मी गुजा रही है और इस लिए मुझे लगता है सब लोग एक्स है क्योकि सब किसम के लोग यहाँ मिलेंगे। कभी भी मुझे लगा नहीं कि मुझे गोरे लोग अलग किसम से बात कर रहें है। मैंने भी कभी उनसे अलग तरीके से बात नही करी। अफ्रीकन अम्रिकांस से भी मैंने इक्दम उसी तरीके से बात करी है जसे मैं और सब से बात कर टी हूँ। और चीनी लोगो से भी वोही कर टी हूँ। मैंने देखा है कि जो लोग चोतेपन से यहाँ रह रहें है वह लोग मेरे तरें है। जो लोग दुसरे देशों से आए है उन लोगो को लगता है कि उनके लोग ही अच्छे है। यह बहुत बुरी बात है। लेकिन क्या यह लोग सच में बोरें है या इन लोगो को जो एक्सपोज़र मुझे मिल है इन को नहीं मिल और इसलिए ऐसे है?

अगले सेमेस्टर

अब जनवरी में अगला सेमेस्टर आ रहा है। मुझे अब अपने क्लासेस बदलने पढ़ेंगे। मैं फिर अठरा क्रेडिट्स लूंगी। वैसे अगर मैं चाहाऊँ तो मैं अगले सेमेस्टर ही ग्रैजूएट कर सकती हूँ। लेकिन मुझे यह युनिवर्सिटी बहुत अच्छा लगता है। अगले सेमेस्टर में मैं हिन्दी क्लास, इंग्लिश क्लास, सिकोलोग्य क्लास, फिलोसोफी क्लास, और डान्स क्लास ले रहीं हूँ। उसके ऊपर रिसर्च भी करूंगी। यह सेमेस्टर मुझे अच्छा करना पड़ेगा। जब अप्रिल आजयेगा तब मैं ग्रैजूएट करूंगी। उसके बाद मैं एक साल के लिए काम करूंगी। मुझे लग रहा है कि मैं रिसर्च एक या दो साल के लिए करूंगी। उसके बाद मेडिकल स्कूल में जाऊंगी। बस यह उमीद कर रहीं हूँ कि सब अच्छा ही हो जाये।

गुरुवार, 22 नवंबर 2007

थान्क्स्गिविंग

इस साल मैं अपने थान्क्स्गिविंग छुटिया कि लिये अपने पहले साल के रूममेट के घर चला आया। कालेज आने के करीबन एक महीने पहले मुझे पत्र द्वारा मेरे रूममेट के बारे में बताया गया था। तब मुझे यह बात जान कर बहुत ख़ुशी हुयी थी कि वह हिन्दुस्तानी था। मुझे आश्चर्य भी हुआ क्युकी मैंने किस्सी कालेज के किसी भी आवेदन-पत्र में यह नहीं लिखा था कि में हिन्दुस्तानी हूँ या में हिन्दुस्तानी रूममेट पसंद करूँगा । कालेज आने पर मैं जब विक्रम से पहले बार मिल तो मेरी उसके परिवार से भी मुलाक़ात हुई। मेरे माता पिता उसके परिवार से मिलकर ख़ुशी हुई सात ही सात मानसिक शांति भी मिल्ली यह जानकार कि में यहाँ घर से दूर एक घर प्राप्त कर सकूंगा। इन दो सालो मे हमारे इस अरमान को मैंने बिल्कुल सच पाया हैं - मैं विक्रम के परिवार के घर हर सेमेस्टर आता हूँ और उनके साथ दो-तीन दिन के लिये रहता हूँ। वे मेरे लिए मेरे परिवार समान है और पता नहीं विक्रम और उसके परिवार के प्यार और दोस्ती कि बिना मेरा कालेज का जीवन पुरा कैसे होता ।

मंगलवार, 20 नवंबर 2007

नेत्रदान-महादान

नेत्रों की मदद से बाहरी दुनिया से हमारा संपर्क संभव है, अतः नेत्रों की उपयोगिता हमारे दैनिक जीवन के लिये सबसे अधिक है । नेत्रों की महत्ता का पता हमें तब चलता है जब हम किसी नेत्रहीन व्यक्ति की क्रियाओं को देखते हैं । मार्ग पर चलना तो दूर , घर पर चलने-फिरनें में भी असुविधा होती है। नेत्रहीन व्यक्ति को हर समय किसी न किसी के सहारे की आवश्यकता होती है, उसका दैनिक जीवन भी मुश्किलों से भर जाता है।

हमारे नेत्र का काला गोल हिस्सा 'कार्निया' कहलाता है। यह आँख का पर्दा है जो बाहरी वस्तुओं का चित्र बनाकर हमें दृष्टि देता है । यदि कर्निया पर चोट लग जाये ,इस पर झिल्ली पड़ जाये या इसपर धब्बे पड़ जायें तो दिखाई देना बन्द हो जाता है । हमारे देश में करीब ढ़ाई लाख लोग हैं जो कि कर्निया की समस्या से पीड़ित हैं। इन लोगों के जीवन का आंधेरा दूर हो सकता है यदि उन्हें किसी मृत व्यक्ति का कर्निया प्राप्त हो जाये । लेकिन डाक्टर किसी मृत व्यक्ति का कार्निया तब तक नहीं निकाल सकते जब तक कि वह व्यक्ति अपने जीवन काल में ही नेत्रदान की घोषणा लिखित रूप में ना कर दे ।हमारे देश में सभी राज्यों नेत्रबैंक हैं जहाँ लिखित सूचना देने पर उस व्यक्ति के देहांत के 6 घटे के अन्दर उसका कार्निया निकाल ले जाते हैं।

हमारे सभी धर्मों में दया, परोपकार, जैसी मानवीय भावनाएँ सिखाई जाती हैं ।यदि हम अपने नेत्रदान करके मरणोपरांत किसी की निष्काम सहायता कर सकें तो हम अपने धर्म का पालन करेंगे , और क्योकि इसमें कोई भी स्वार्थ नहीं है इसलिये यह महादान माना जाता है।

क्या भारत अगले 20 सालों में एक विकसित देश बन सकता है?

भारत को कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था।किसी समय में यह एक सुखी-सम्पन्न देश था। हमारे तक्षशिला , नालंदा आदि प्राचीन विश्वविद्यालयों में दुनिया भर से छात्र शिक्षा प्राप्त करने के लिये आते थे । परन्तु हज़ारों वर्षों के विदेशी आक्रमण , शासन व विदेशी गुलामी जैसी स्थितियों के कारण आज हमारे राष्ट्र के सामने कई समस्याएँ हैं। स्वतन्त्रता मिलनें के पश्चात इन समस्याओं से हम लगातार झूझ रहे हैं तथा इनको सुलझानें में पिछले कुछ वर्षों में तीव्रता तो आई है परन्तु हम अभी भी एक विकासशील देश हैं, विकसित नहीं । भारत यदि अपनी कुछ मूल समस्याओं को शीघ्र दूर करने का प्रयत्न करे तो अगले 20 वर्षों में वह अवश्य ही एक विकसित राष्ट्र बन सकता है ।

अशिक्षा, बढ़ती-आबादी, धार्मिक झगड़े व गरीबी सभी समस्याओं की जड़ हैं। हमारे देश में भ्रष्टाचार भी सभी सीमाएँ लाँघ चुका है । एक विकसित देश बनने के लिये सामूहिक प्रयत्नों की ज़रूरत है । जब सब लोग निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्र के विकास की चिन्ता करेंगे तो उन्नति को कोई नहीं रोक सकता। ज़रूरत है केवल राष्ट्र की सोती चेतना को जगाने की । हमारे देश के किसान , मज़दूर , व्यवसायी, कला क्षेत्र से जुड़े लोग, बुद्धीजीवी तथा हर क्षेत्र के तकनीकी विशेषज्ञ बहुत मेहनती व कुशल हैं ।इनकी वजह से आज देश का वृद्धि-दर 7 से 8% सालाना है । यदि यह दर करीब 10% पहुँच जाये तो हमारा राष्ट्र अगले 20 सालों में एक विकसित देश ज़रूर बनेगा।

क्या भारत अगले 20 सालों में एक विकसित देश बन सकता है?

भारत को कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था।किसी समय में यह एक सुखी-सम्पन्न देश था। हमारे तक्षशिला , नालंदा आदि प्राचीन विश्वविद्यालयों में दुनिया भर से छात्र शिक्षा प्राप्त करने के लिये आते थे । परन्तु हज़ारों वर्षों के विदेशी आक्रमण , शासन व विदेशी गुलामी जैसी स्थितियों के कारण आज हमारे राष्ट्र के सामने कई समस्याएँ हैं। स्वतन्त्रता मिलनें के पश्चात इन समस्याओं से हम लगातार झूझ रहे हैं तथा इनको सुलझानें में पिछले कुछ वर्षों में तीव्रता तो आई है परन्तु हम अभी भी एक विकासशील देश हैं, विकसित नहीं । भारत यदि अपनी कुछ मूल समस्याओं को शीघ्र दूर करने का प्रयत्न करे तो अगले 20 वर्षों में वह अवश्य ही एक विकसित राष्ट्र बन सकता है ।

अशिक्षा, बढ़ती-आबादी, धार्मिक झगड़े व गरीबी सभी समस्याओं की जड़ हैं। हमारे देश में भ्रष्टाचार भी सभी सीमाएँ लाँघ चुका है । एक विकसित देश बनने के लिये सामूहिक प्रयत्नों की ज़रूरत है । जब सब लोग निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्र के विकास की चिन्ता करेंगे तो उन्नति को कोई नहीं रोक सकता। ज़रूरत है केवल राष्ट्र की सोती चेतना को जगाने की । हमारे देश के किसान , मज़दूर , व्यवसायी, कला क्षेत्र से जुड़े लोग, बुद्धीजीवी तथा हर क्षेत्र के तकनीकी विशेषज्ञ बहुत मेहनती व कुशल हैं ।इनकी वजह से आज देश का वृद्धि-दर 7 से 8% सालाना है । यदि यह दर करीब 10% पहुँच जाये तो हमारा राष्ट्र अगले 20 सालों में एक विकसित देश ज़रूर बनेगा।

बुधवार, 14 नवंबर 2007

वन विनाश के दुष्प्रभाव

वन न केवल भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं परन्तु सरे संसार के लिये अति आवश्यक हैं । आदि मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही वनों के निकट निवास करता था । वनों का आज भी उतना ही महत्व है जितना कि पहले था, बल्कि आज उनका महत्व अधिक है क्योंकि वन विनाश की प्रक्रिया अब बहुत तेज़ी से आरम्भ हो गयी है।

वन विनाश का मुख्य कारण वर्तमान सभ्यता है। हमारी सभ्यता उपभोग प्रधान है। बढ़ती आबादी की आवश्यकताएँ भी बढ़ रही हैं। खेती के लिये अधिक भुमि चाहिये, रहने के लिये अधिक स्थान चाहिये, जलाने के लिये लकड़ी, कागज़ की लुगदी, औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति आदि । सभी का एक ही जवाब-पेड़ काटे जाएँ अर्थात वन विनाश ।

वन विनाश के कारणों से हट कर यदि हम इसके दुष्परिणामों के बारे में सोचें तो हमें बहुत चिन्तित होना पड़ेगा । इसका सबसे बड़ा कुप्रभाव हमारे सामने वायु-प्रदूषण के रूप में है। जहाँ पेड़ों का अभाव है वहाँ वायु प्रदूषित है। और वायु प्रदूषण की समस्या शहरों में सबसे ज़्यादा है। यहाँ लोगों को कई रोग हैं जिनमें श्वास के रोग से लोग सबसे अधिक पीड़ित हैं ।

वन विनाश से वन्य प्रजातियों को भी बहुत नुकसान पहुँच रहा है और बहुत सी प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं तथा बहुत सी लुप्त होने की कगार पर हैं। वनों का सफाया होने से भूमि की ऊपर की उपजाऊ मिट्टी वर्षा के जल से बहकर उन स्थानों पर चली जाती है जहाँ उसका उपयोग नहीं । वनों का क्षेत्र कम होने से वर्षा भी अनियमित होती जा रही है । इस सबसे 'ग्लोबल-वार्मिंग' होने लगी है। इसका सीधा कुप्रभाव मानवों पर पड़ेगा ।

वन विनाश की हानियों को देखते हुए हमें वन क्षेत्र को बढ़ाने के लिये व बचे वनों के संगरक्षण के लिये तुरन्त कदम उठाने चाहियें ।

क्रोध, एक अभिशाप

क्रोध अहंकार व ईर्ष्या से जन्म लेता है। मनुष्य का क्रोध विनाश का करण बन जाता है।जब मनुष्य क्रोधित होता है तब उसकी सारी शिक्षा , सारी होशियारी, सारा पाण्डित्य धरा का धरा रह जाता है।मनुष्य के भीतर का दानव प्रकट होने लगता है। ऐसी स्थिति में बुद्धि और विवेक का कोई वश नहीं चलता तथा मनुष्य हिंसा का ताण्डव करने लगता। इतिहास गवाह है कि कई राजाओं ने अहंकार को तृप्त करने के लिये भयंकर नरसंघार किये हैं।सभी सिकंदरों,हिटलरों व ओसामाओं की एक ही कहानी है कि सभी ने अपनी महत्वकांक्षाओं की खातिर दुनिया को नरक जैसा बना दिया ।

क्रोध एक शक्ति भी है। जब हमारा शरीर क्रोधयुक्त होता है तो भीतर से एक शक्ति जन्म लेती है। यह शक्ति वस्तुओं या व्यक्तियों पर तुरन्त टूट पड़ती है जिसके करण वह निर्बलों पर अत्याचार करने लगता है। पुरुष स्त्रियों व बच्चों पर टूट पड़ता है , स्त्री बच्चों पर बरस पड़ती है आदि ।

क्रोध मन की अशांति से जन्म लेता है, यह मन के अस्वीकार से उपजता है।मन उन बातों को स्वीकार नहीं कर सकता जो अहंकार के विप्रीत हों । क्रोध कहता है कि बिना चुनौतियों को स्वीकार किये , बिना कांटों का सामना किये शिखर को छू लिया जाये ।इसलिये क्रोध हिंसा का सहारा लेता है । क्रोध का अंत हमेशा पछतावे के रूप में देखा गया है।जब क्रोध शांत होता है तब दिखाई पड़ता है कि भूल हुई है व क्रोध कितना बड़ा अभिशाप है।

मंगलवार, 13 नवंबर 2007

आत्मविश्वास

आत्मविश्वास के द्वारा ही हम अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। आत्मविश्वास परिश्रम से आता है हम अपनी योग्यता का अनुमान स्वंय ही लगा सकते हैं जिस व्यक्ति में आत्मविश्वास होता है, वह विपरीत परिस्थितियाँ होने के पश्चात भी सफलता प्राप्त करता है जिस व्यक्ति में आत्मविश्वास नहीं होता, वह हीन भाव से ग्रस्त हो जाता है और अपने सामने आए स्वर्ण अवसर को भी खो देता हैवह जीवन में कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता संदेह और अनिश्चय को उठाकर फेक देना चाहिए अपने मन में आत्मविश्वास की भावना को लाकर ही किसी काम का संकल्प करना चाहिये। तभी हम सफल हो सकते हैं

आत्मविश्वास में बहुत शक्ति होती है आत्मविश्वास किसी भी परिस्थिति में उचित निर्णय लेने का साहस प्रदान करता है जिस व्यक्ति में आत्मविश्वास होता है, वह अपने सामने आने वाले हर अच्छे अवसर को पहचान लेता है, और पूर्ण निष्ठा से कार्य करते हुए अपने सपनों को साकार करता है श्वर हमें सदैव जीवन में आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करता है, परन्तु जिसमें अपनी योग्यता का विश्वास हो, उसके हाथ से अवसर निकल जाता है

अवसर एक वरदान होता है जो जीवन में बार-बार नहीं आता है अतः उसके स्वागत के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए, और पूर्ण आत्मविश्वास और निष्ठा के साथ, सामने आए हुए अवसर का लाभ उठाना चाहिए दूसरे हम पर तभी विश्वास करेंगे जब हम में आत्मविश्वास होगा

सत्य की शक्ति

हमारे उपनिषदों में कहा गया है: “सत्यमेव जयते” अर्थात, सत्य की जीत होती है झूट अन्त में पराजित होता है जिन लोगों नें सत्य की विजय के लिए कष्ट उठाये, वे लोग हमारे लिए आज भी पूजनीय हैं बचपन से ही हमें सिखाया जाता है कि हमें सदैव सत्य बोलना चाहिये। माता, पिता और अन्य लोग भी हमें ही शिक्षा देते हैं कहा भी जाता है कि सत्य से ड़ा कोई तप हीं, और झूठ से ड़ा कोई पाप नहीं। जिसके हृदय में सत्य का वास होता है, उसके हृदय में ईश्वर का वास होता है।

सत्य और असत्य का युद्ध हर युग में, किसी न किसी रूप में, चलता रहता है। जो सत्य के आदर्शों में विश्वास करता है, वह रास्ते में आने वाली हर कठिनाई का सामना करने में सक्षम होता है कुछ लोग ही बलिदान देतें हैं, परन्तु उसका लाभ सारे संसार को मिलता है

गाँधी जी ने संसार में सत्य के एक नये युग की स्थापना की थी। गाँधी जी ने सत्य और अहिंसा के मार्ग को अपनाया, और उसपर चलने के लिए लोगों को प्रेरणा दी सत्य और अहिंसा के मार्ग पर ही चलकर उन्होंने हमारे देश को स्वतंत्रता दिलाईउनके भाषण का असर लोगों पर जादू जैसा होता था, इसीलिए उन्हें लोग महात्मा गाँधी और बापू के नाम से पुकारते थे

इस प्रकार हम देख रहें हैं कि सत्य में बहुत शक्ति है इस राह पर चलकर हम बड़े से बड़े कार्य में सफलता प्राप्त कर सकते हैं, और अपना तथा देश का कल्याण कर सकते हैं आज भी सत्य और आदर्शों की आवश्यकता है तभी हम स्वस्थ और शक्तिशाली समाज का निर्माण कर सकते हैं